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लोहड़ी एवं मकर सक्रांति का त्योहार

Updated on Wednesday, January 14, 2015 12:52 PM IST

चंडीगढ़ (ओम) - लोहड़ी एवं मकर  सक्रांति एक-दूसरे से जुड़े रहने के कारण सांस्कृतिक उत्सव और धार्मिक पर्व का एक अद्भुत त्योहार है। लोहड़ी को पहले तिलोड़ी कहा जाता था। यह शब्द  तिल तथा रोड़ी (गुड़ की रोड़ी) शब्दों के मेल से बना है, जो समय के साथ  बदल कर लोहड़ी के रुप में प्रसिद्ध हो गया। मकर संक्रांति से एक दिन पूर्व उत्तर भारत विशेषतः पंजाब में लोहड़ी का त्यौहार मनाया जाता है। किसी न किसी नाम  से मकर संक्रांति के दिन या उससे आस-पास भारत के विभिन्न प्रदेशों  में कोई न कोई त्यौहार  मनाया जाता है। मकर संक्रांति के  तमिल हिंदू पोंगल का त्यौहार मनाते हैं। इस प्रकार लगभग पूर्ण भारत में यह  विविध रूपों में मनाया जाता है!  मकर संक्रांति की पूर्व संध्या को  पंजाब, हरियाणा,हिमाचल व पड़ोसी  राज्यों में बड़ी धूम-धाम से 'लोहड़ी ' का त्यौहार मनाया  जाता है। 

पंजाबियों के लिए लोहड़ी खास महत्व रखती है। लोहड़ी से कुछ दिन पहले से ही छोटे बच्चे लोहड़ी के गीत गाकर लोहड़ी हेतु लकड़ियां, मेवे,  रेवड़ियां, मूंगफली  इकट्ठा करने लग जाते हैं।  लोहड़ी की संध्या को आग जलाई जाती है। लोग अग्नि के चारो ओर चक्कर  काटते हुए नाचते-गाते हैं व आग मे रेवड़ी, मूंगफली, खील, मक्की के दानों की आहुति देते हैं। आग  के चारो ओर बैठकर लोग आग सेंकते  हैं व रेवड़ी,  खील, गज्जक, मक्का खाने का आनंद लेते हैं। जिस घर  में नई शादी हुई हो या  बच्चा हुआ हो उन्हें  विशेष तौर पर बधाई दी  जाती है।  प्राय:  घर मे नव वधू या और बच्चे  की पहली लोहड़ी बहुत विशेष होती है। ऐतिहासिक संदर्भ –किसी समय में सुंदरी एवं  मुंदरी नाम की दो अनाथ लड़कियां थीं जिनको उनका चाचा विधिवत शादी  न करके एक राजा को भेंट कर देना चाहता था। उसी समय में दुल्ला भट्टी  नाम का एक नामी डाकू हुआ है। उसने दोनों लड़कियों, 'सुंदरी एवं मुंदरी' को जालिमों से छुड़ा कर उन की शादियां कीं। इस मुसीबत की घडी में दुल्ला  भट्टी ने लड़कियों की  मदद की और लडके वालों को  मना कर एक जंगल में आग जला कर सुंदरी और मुंदरी का विवाह करवाया। दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया। कहते हैं दुल्ले ने शगुन के रूप में उनको शक्कर दी थी। जल्दी-जल्दी में  शादी की धूमधाम का इंतजाम भी न हो सका सो  दुल्ले ने उन लड़कियों  की झोली में एक सेर  शक्कर डालकर ही उनको  विदा कर दिया। भावार्थ  यह है कि डाकू होकर भी  दुल्ला भट्टी ने निर्धन  लड़कियों के लिए  पिता की भूमिका निभाई।

यह भी कहा जाता है कि संत  कबीर की पत्नी लोई की  याद में यह पर्व मनाया  जाता है. इसीलिए इसे लोई  भी कहा जाता है।  इस उत्सव का एक अनोखा  ही नजारा होता है। लोगों ने अब समितियां  बनाकर भी लोहड़ी मनाने का नया तरीका निकाल लिया है। ढोल-नगाड़ों  वालों की पहले ही  बुकिंग कर ली जाती है। अनेक प्रकार के वाद्य यंत्रों के साथ जब लोहड़ी के गीत शुरू होते  हैं तो स्त्री-पुरुष, बूढ़े-बच्चे सभी स्वर  में स्वर, ताल में ताल  मिलाकर नाचने लगते हैं।  'ओए, होए, होए, बारह वर्षी  खडन गया सी, खडके लेआंदा...,' इस  प्रकार के  पंजाबी  गाने लोहड़ी की खुशी में  खूब गाए जाएंगे। शाम  होते ही उत्सव शुरू हो  जाता है और देर रात तक  चलता ही रहता है। इस  पर्व का एक यह भी महत्व  है कि बड़े-बुजुर्गों के साथ उत्सव मनाते हुए नई  पीढ़ी के बच्चे अपनी  पुरानी मान्यताओं एवं  रीति-रिवाजों का ज्ञान  प्राप्त कर लेते हैं,  ताकि भविष्य में भी पीढ़ी दर पीढ़ी उत्सव  चलता ही  रहे।

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